पथभ्रष्ट

 रंग तरंग

खूब घुमड़ता
मेघ सा
सजल सघन
पंथहीन
अविचल सा
भ्रमरथ
हृदय सकल
सार सा
विस्तार वो
अंतहीन
विकल विरल
नित्य
ठहर इधर
उधर
घना कौंधता
गतिहीन
अब मनोरथ

मनोज शर्मा

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