सुख
एक उम्र होती है,जब हर आदमी एक औसत सुख के दायरे में रहना सीख लेता है..उसके परे देखने की फुरसत उसके पास नहीं होती,यानि उस क्षण तक महसूस जब तक खुद उसके दायरे में ..आपने अक्सर देखा होगा कि जिसे हम सुख कहते हैं वह एक ख़ास लमहे की चीज़ है۔۔
...धीरे -धीरे गरिमा के साथ बूढ़ा होना बहुत बड़ा 'ग्रेस' है,हर आदमी के बस का नहीं।वह अपने-आप नहीं आता ,बूढ़ा होना एक कला है,डिसे काफी मेहनत से सीखना पड़ता है।हर आदमी को एक मर्तबा अपनी पसंद को चुनने की आज़ादी मिलनी चाहिए चूंकि बाद में तो सब उसे दोहराया जाता है..। एक चलती-फिरती दुनिया-जिसके सदस्य एक-दूसरे को नहीं जानते-फिर भी हमेशा एक-दूसरे से मिलते हैं,अंधेरे हाॅल में ताली बजाते हैं-पर एक-दूसरे को जानते नहीं,छूते नहीं-तमाशा खत्म होते ही अपने-अपने कोनों में खो जाते हैं..।
टिप्पणियाँ