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जून, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बेबस-कहानी सरिता में प्रकाशित

 https://www.sarita.in/family-stories/hindi-story-bebas-part-1

मौन

  रात बीत चली पुनः सुबह की ओर ख्वाब छुट गया आज भी वहीं कहीं सिमट गया ठहर गया मुझ में कहीं अधखिली पंखुड़ी सा सिकुड़ता आतुर हुआ कुछ कहने को पर कह न सका पिछली रात की तरह मोम पिघल गया यहीं कहीं मेरे सिरहाने अब मौन पसरा हुआ है मैं सिहर कर बस तांकता रह गया सुबह को मनोज शर्मा

पथभ्रष्ट

  रंग तरंग खूब घुमड़ता मेघ सा सजल सघन पंथहीन अविचल सा भ्रमरथ हृदय सकल सार सा विस्तार वो अंतहीन विकल विरल नित्य ठहर इधर उधर घना कौंधता गतिहीन अब मनोरथ मनोज शर्मा

मां

  मैंने कई मर्तवा देखा था तुम्हें आर्द्र नयनों से भीगते सिसकते कसकते चहकते महकते स्वयं को मिटते सिमटते बरबस चहकते हुए मर्म समेटे मुस्कुराहट बिखेरते गहन अंधकार को तराशते पुनः नवतरण लौटते अभिन्न असहज अक्षुण्ण सहृदय से नव कर्म में आशीष लिए नित्य तुम संग हो मनोज शर्मा

बावस्ता

  इब्तिदा कब खत्म हुई ख़ैर गुमां तो रहा गर्दिश में लौटकर आसमां बदल गया कभी बतियाते थे गली कूचों नुक्कड़ों पर जब मंज़िलें करीब लगती थी आज़ खुद को लुटा कर भी हाथ कुछ न लगा हम किसी के न हुए कोई हमारा न हुआ सहर थम गयी आसमां बदल गया ज़िन्दगी मुसलसल चलती रही कहीं बावस्ता न रहा मनोज शर्मा

ख़्वाब

  तुम तो एक ख्वाब थे सरल से सरस से मुझ में स्थिर हो तुमने मोह लिया था इक रोज़ जब हर इक अदा से कनखियों से करपाश से आलिंगन से तुम हमसफर हो चले थे फिर कभी चहक कर कभी महक कर बरबस दिल मे बसते थे आज तुम हर पल संग हो करीब हो मेरे हम सफर बनकर ख्वाब नहीं वरन् सत्य से भी परे हो तुम मनोज शर्मा  

काला कऊआ

उस रोज़ हम दो मैं और वो काला कऊआ उस टीले पर बैठे थे निरस्त से कहीं खोये खोये से अजनबी बन उसने मुझे देखा मैंने उसे वो गुमसुम था बहुत देर से अकेला मेरी तरह सहसा इक हलचल हुई वो ठिठका और लपक कर उड़ गया दूसरे ठोर की ओर मैं ताकता रह गया उसी टीले की ओर जहां हम दो थे उस रोज़ मनोज शर्मा

मेरा चश्मा

  मेरा चश्मा रोज देखता एक सुनहरा सपना कभी इठलाता कभी सहम जाता नज़र बचाता आंख उठाता यौंही बादलों में घिर जाता घने कोहरे सा नित् आता मेरा जीवन उजियारा कर जाता रंगीन सी बदली बदली जिन्दगी में महकते पुष्प सा रोज़ करीब आ जाता दर्द छुपाता उच्छवास रफ़्त बदल जीवन सतत बनाता मनोज शर्मा

प्रतिध्वनि

  दूर कहीं कोई बैठकर मीठा राग सुनाता है परम अभिव्यक्ति बोल में मृत्युभय नहीं छलाबा नहीं प्रेम है पराकाष्ठता है सम्पूर्ण जगत् का सा परमानन्द है आत्मसात् हुआ तुझे पाकर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तुम संग हो जैसे आसमां में दिवाकर है कालांतर से किंतु समक्ष होता नहीं नित्य तुम सा मुझ जैसा दूर हो जाता है मनोज शर्मा

सफ़र

  बंद दरवाज़ों से होता है रोज सामना अब यौं बार बार पलकें झपकना खुद को निहारना आइने में कभी लगता था कि वक्त थम जाये उस देहरी तले पर पीली घूप सामने है पहर भी गुज़र गये एक नयी इब्तिदा सामने अब आओ हमतुम फिर से बढ़ चले मनोज शर्मा

मासूम

  आंखे मुस्कुरा के ठहर जाती है मासूम बच्चे के से मन की अटखेलियां सी रोज़ भंवर से उठकर सिहर उठती है इक शफ़क थी कभी यहीं कहीं इक रोज़ बचपन भी बीत चला यौं बिखरते फूल सा उन दरीचो के नीचे जिनकी गंध भी थम गयी मटमैली मिट्टी पुनः रेत बन हाथ से बह चली गुज़रा वक्त आज असहज लगता है पर तुम भी संग नहीं अर्धसत्य करपाश किये हुए हो तुम मनोज शर्मा

मोहन राकेश

  मोहन राकेश कलम के सशक्त हस्ताक्षर थे 08 जनवरी उनका जन्म दिवस है।'आधे अधूरे','आषाढ़ का एक दिन',बेहतरीन नाटक हैं।मिस पाल,एक और जिंदगी और ज़ख्म जैसी कहानियों में वह स्वयं नज़र आते हैं।'अंधेरे बंद कमरे'उनकी लेखनी का नायाब उदाहरण हैं।मेरा सबसे प्रिय लेखक मोहन राकेश हैं जो कभी कभार मेरे अंदर आ बैठता है ।रेखाओं पर कुछ आकृति खींच लौट जाता है।कोई तो है जो अंदर है छटपटाता है शायद उन जैसा कुछ है जो कुछ कह जाता है कभी कभी। छह सात सालों में चेहरा बदल जाता हैं और चेहरा ही नहीं बल्कि सोच भी।जहां चेहरे पर सलवटे उभरने लगती है वहीं अब सोच भी परिपक्व होती चली जाती है।कई चेहरे एक समान या मिलते जुलते से नज़र आने लगते हैं।उसकी कमजोर होती आखों पर मोटा काला चश्मा आ गया था और केश भी सफेद होने के साथ साथ कम हो चुके थे।दरवाजे पर आहट होने पर कोई आकृति लम्बे गलियारे से होते हुए करीब आती जा रही थी।समय बीतने पर भी उसकी चाल में अभी भी वही थी एक चुस्ती सी जो कुछ समय पहले तक थी एक पल में वो मेरे सामने था।उसने मुझे पहचान लिया था अब हम घर के अंदर थे।अंदर पहुंचकर उसने उस जलती सिगरेट को बिस्तर के

मख़तूल

  किसी को मख़्तूल समझना बहुत आसान है क्योंकि कोई किसी के संदर्भ में जितना जानता है वो अपर्याप्त होता है दंभ में जीना स्वयं को अव्यवस्थित ही करता है।चरित्र समय बीतते बनता जाता है एक पल आंखों में बस जाता है तो दूसरे पल आंखों से उतर जाता है पर हर इंसान अपना किरदार निभाता रहता है अब चाहे आनंद से जीयो या अवसाद में।किसी की सूरत देख कभी मौसम टपकता है तो कभी भवें तन जाती है पर यही आंखे ऐसे चरित्र से कभी खिल जाती थी समय बदलता है मौसमों की तरह दुःख सुख किसी का नहीं होता अपनी अपनी श्रद्धा है अपनी अपनी सोच प्रेम कभी अपने चरम पर होता है तो कभी सिरे से नकार देता है।मख्तूल एक सोच है जो मात्र सोच से ऐसा बन जाता है और उसे दूसरों से इतर कर देता है पर इतना सत्य है कि मुक्कमल कोई नहीं जीवन में ग़लती सबसे होना लाज़िमी होता है पर अकारण मख्तूल कह देना कोई औचित्य नहीं।मात्र सोच के कारण कुछ भी समझ लेना और अलग रास्ता अख़्तियार कर लेना मेरी समझ से परे है बहरहाल दिन बीत गया एक पीली शाम आंखों के सामने है गहरी सोच रात के अंधेरों को फिर ओढ़ लेगी।सब इसी तरह जीते हैं बस किरदारों में फेरबदल होता जाता है आज मैं मख्तूल क

चेहरे

  सड़क पर घूमते अजनबी-से कुछ उदास चेहरे सिगरटों के धुएं में ज़िन्दगी टटोलते हैं खोखली दीवारों पर रोज़ वो आते हैं टिप्-टिप् बारिश की बूंदों से दो पल झांक कर दूसरों की ज़िन्दगी में पुनः लौट जाते हैं..! मनोज शर्मा

कर्मपथ

  तुम कर्म पथ बढ़ो मैं संग हूं कालांतर से पूर्ववत ना समझो हर ओर अंधकार नहीं वरन् भूलवश भटके हो यहीं कहीं पर स्मरण करो हर ओर उजाला है मौन हूं मैं अशांत नहीं हूं अभी समय नहीं अभिव्यक्ति का यदाकदा यथार्थ से अवगत रहो पुनः कर्मपथ पर लौट चलो सार नहीं है जीवन यों व्यर्थ अटहास न करो गहन संवेदनाओं से सजा सधा होता है आलौकिक क्षण कण कण में होता है अद्मुत जग तुम कदम कदम पर धर्म पथ पर चलो वैभव चरणबद्ध संग होगा तेरे मनोज शर्मा

पुत्रवधु

   मृगनयनी  मृदुभाषिणी चित में मर्म जगाती मेरी पुत्रवधु जर्जर थे हम तेरे आने से पूर्व जब आसंमा स्याह हो चला था भीगती आंखें एवं सिसकियां हर ओर निकलती थी तुम कल्पतरु से रोज़ भाग्य जगाते हो मनमोहक मुस्कान लिए हृदय में बस जाते हो ठौर बदल संगिनी बनी पुत्र से बढ़कर मान हो सम्मान हो पुत्री ही नही वरन् मेरे घर की शान हो मनोज शर्मा

जीवन

  जीवन क्या है एक कहकहा अंतहीन उलझन भरा रोज़ ठौर बदलता है त्रासद या मुस्कुराहट से भरा शायद मनोरम कभी कभी किंतु चिर परिचित स्वयं में लौटता कोई गहन अनकहा सा मनोज शर्मा

अंतर्मन

  तुम अंतर्मन की जिज्ञासा से करीब ही नहीं ओत प्रोत हो जाते हो अंबर पर तारों के मध्य मृगतृष्णा एक परिहास सा होता है नित्य तुम आते हो लौट जाते हो मनोज शर्मा

भीत

  रोज भीत को देखता हूं जिज्ञासावश विवश हो जाता हूं देखकर उतरती भीत की परते सालती दीवार कमतर कर देती  हैं मौन हूं भयभीत हो फिर एकटक बंध जाता हूं उसी भीत में सदियों से खड़ी भीत कभी रोकती कभी ठहरती जर्जर हो चली मैले कुचैले ठिठकते बिचार सलवटे झांककर रोज उभर जाती है सिहर उठती है स्वयं में पुराने स्वप्नों से रोज व्यक्त नहीं होते कालांतर से भयभीत पुर्ववत तुम वहीं पहले से स्तब्ध मनोज शर्मा

एक वर्ष

  बीते तुम  एक बर्ष और अब ठहर अभी एक पल अभी भी कुछ बाकी है रोज़ नये से कुछ बदले तुम पुनः लौट आते हो मनोज शर्मा

मैं और तुम

  मैं नहीं तुम तुम नहीं हम साथ साथ हम तुम आज तुम नहीं मैं सिर्फ मैं मनोज शर्मा

तुम

  रोज बांध लेते हैं मुझे वो तुम्हारे बोल पूर्ववत मधुर कर जाते हैं नित् कोई आता है यहां एक बार शायद वो तुम हो तुम ही हो मनोज शर्मा

लिवास

  ज़िन्दगी रोज़ मिलती है नये लिवास में कभी यहां कभी वहां नये चेहरे की तलाश में यकीनन् कभी पुराने कभी नये सवाल में कोई कमतर नहीं यों तो जिन्दगी यौं ही चलती है हमख्याल होती है मुखतलिफ चेहरों से रुबरु होती है यहां चेहरे बदलते हैं जिन्दगी नहीं हर इक चेहरा दूजे से जुदा है पर ज़िन्दगी आज भी संग है माझी सी उन्ही चेहरों में जहां प्रेम है फरेब है और ज़िन्दगी बसी है मनोज शर्मा

रोटी

  कभी जोड़ कर कभी तोड़ कर खूब पकाते रोटी कभी बेल कर कभी खेल कर खूब घुमाते रोटी बिन आटे के बिन बेलन के रोज़ चलाते रोटी कभी सेक कर कभी देख कर रोज़ दिखाते रोटी कभी बोल कर कभी खोल कर खूब कमाते रोटी कभी प्यार से कभी आस से रोज़ नचाते रोटी किसी गरीब की किसी शरीफ की रोज़ दबाते रोटी मनोज शर्मा

प्रभु

  कोई है अंतर्मन में नित् सांकल बजाता है कभी अनबोली प्रीति सी मुझमें छोड़ जाता है गेरुआ वस्त्र,संग वीणा प्रभु-रास रचाता है कब होगा मेरा वो नित् नवगीत सुनाता है प्रातः,सांध्य,रात्रि वो मुझमें आ जाता है कोई है संग मेरे जो नित् अपना बनाता है तर्पण हो,दर्पण हो कर्पण हो,अर्पण हो कभी बाल सखा कभी रासरंग हो तुम्हीं सर्वस्व हो तुम्हीं कर्तव्य हो मनोज शर्मा

पथ

  ठहर ज़रा वक्त तो रुक जाने दे तुम इंद्रधनुष नहीं जो पल भर में लौट जाओगे शीतल कर मेरी आंखे बिन बरसे तुम अब स्थिर हो पंक की भांति मुझसे लिपटे हो लौट आओ तुम मुझमें बिखरी बूद ठिठककर अब अश्क बनी देह कंपित ,स्थिर हुई प्रथम किरण ज्यों ही पड़ी मौन अभिव्यंजित नहीं हुआ आज भी मैं अकेला नहीं तुम संग हो पूर्ववत बीते समय की भांति पथ में सुन्दरतम् मनोज शर्मा

श्राद्ध

  कहते हैं ज़रुरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता हैं इसलिए क्योंकि गधा एक सीधा साधा प्राणी है जैसे उससे चाहे अपना काम निकाल सकते हैं  पर इन श्राद्ध के दिनों में इंसान गधे को ही नहीं कुत्ते और काग को  बाप ही नहीं बल्कि दादा परदादा बनाने से नहीं चूकते क्योंकि वो आज यजमान हैं पितृ के से तुल्य हैं ।वो साल भर कुत्तों को देखते ही सोटा उठा लेता था और कउओ की  आवाज़ बेहद कर्कश लगती थी पर आज उन्हें ढूंढने के लिए मारा मारा घूम रहा है बेचारे कुत्ते और काग भी समझ चुके हैं कि यहां से देह की दुर्गत ही होनी है सो वो भी उसे देखते ही नो दो ग्यारह हो जाते हैं हां उनके स्थान पर गधे को यों पूजा जाता तो बात भी होती पर वो बेचारा तो निरा गधा ही है तभी सर झुकाएं बिना आक्रोश के सब स्वीकार लेता है ।गली के दूसरे छोर से निकलते भूरे कुत्ते को देखा भी पर उसकी आज कोई पूछ नहीं हो रही क्योंकि काले कुते को ग्रास खिलाने से जो पून्य मिलता है वो भूरे कुत्ते को खिलाने में कहां मोहल्ले के कउए भी समझ चुके हैं कि यहां उनके लिए कुछ नहीं बचा सो वो भी दूर पार्कों में मस्त रहते हैं ।मैं सोचता हूं कि इन जैसे प्राणियों के लिए सा

आज भी

  तुम जीते हो आज भी जीते हो जीवन मखमली पुंज नहीं उर मे बसे गहन संवेदन हो तुम सतत हो जाग्रत हो तुम्हें सदैव नमन हो मनोज शर्मा

सांझ

  रोज़ सांझ आती है नये बदन में कभी मुस्कुराकर कभी ग़मग़ीन एक लम्बी जम्हाई लिये लौट जाती है अनायास कोई नहीं आता असभ्य सांझ तुम्हे ओट चाहिए सुराही सी सांझ कभी प्यालों में छलकती है कभी आंखों में तैर जाती है सांझ बस सांझ मनोज शर्मा

शब्द

  शब्द आते हैं और ठहर जाते हैं काव्य में रोज़ मांझते हैं मेरे अंतर्मन को कभी स्थिर होकर मौन रहता हूं मैं पर बहुत कुछ कहता हूं मूक शब्दों से शब्द मात्र शब्द नहीं मेरी जीवनगाथा है कभी सहलाते हैं मेरे मर्म को कभी झंझोड़ते हैं मेरे अंतर्द्वंद्व को कभी मुस्काते हैं शब्द कभी रो देते हैं आंखों से कुछ नया कह जाते हैं विशिष्ट शैली में शब्द मैं हूं चिर परिचित सतत् यथार्थ मनोज शर्मा

नये शब्द

  नये शब्दों में नयी बातो से रोज़ नया सृजन आता है जो पुराने से भिन्न है आधुनिक ही नही अत्याधुनिक होते हैं ये शब्द ये बात नही कहते वरन् गूंजते हैं कौंधते आकाश में ठिठकते हैं नयी चेतना लाते हैं पुनः नयी स्फूर्ति पाते हैं शब्द अब शब्द नहीं क्योंकि शब्द ही शिष्ट करते हैं पर कुछ शब्द जब शब्द नहीं रहते अशिष्ट कर जाते हैं शब्दों को शब्द ही रहने दें ये पुरानों से भिन्न हैं पर आज भी शब्द हैं मनोज शर्मा

नैराश्य (लघुकथा)

  रैड़ सिगनल से दौड़ती हुई गाड़ी एक पल को रुकी वहां कोई गाड़ी के टायर के नीचे आ चुका था।एक आकृति ने गाड़ी के बायें शीशे से बाहर पलटकर देखा एक भिखारी मृत्यु भय से चिल्ला रहा था और अंतिम चीख के साथ वहीं  मर गया गाड़ी में बैठी आकृति ने ड्राइवर को गाड़ी तेज भगाने का निर्देश दिया  कुछ ही मिनटों में सड़क साफ थी जहां दो पल पूर्व ज़ोर शोर था वहीं अब हंसी ठट्ठा चल पड़ा यह वही भिखारी था जिसे कई वर्षो से यहां देखा जाता था। एक गरीब निर्धन अपंग परिवार एक मरियल से लड़के को गोद में लिए मृतक भिखारी की औरत सिसक रही थी रात बीती जो था सब चला गया था अब कोई नहीं जो उन्हें पाल सके लिहाज़ा अगली ही सुबह वो उसी सिगनल पर भीख मांग रही थी दुःख और नैराश्य को ओढ़े आंखों से बरसात हो रही थी पर वो भिखारी खोमचे रिक्शे वाले जन जो कल तक भिखारी के साथ होते थे आज उन्हें ताना मारने में कोई गुरेज न था एक कहता अरे भीखू की आग भी नहीं बुझी और ये यहां बैठी है दूसरा बोलता अरे निर्लज्ज है साली हया बेच खायी इस पापिन ने तीसरा भी बोलता अरे इन सालों का कभी पेट नहीं भरता पता नहीं कितना खाते हैं पर भिखारिन आंखों को जमीं में टिकाएं सुबकत

NSS

   प्रतिभागिता प्रमाण पत्र Internatinal Webinar Series "प्रेमचंद के सपनों का भारत" भारतीय भाषा परिषद  सरणी कोलकाता (31जुलाई 2020)  'KALANJALI:Revering Art and Indian Culture' SHIVAJI COLLEGE University of Delhi National Service Scheme (04 August 2020) "सामाजिक चेतना के संवाहक मुंशी प्रेमचंद" सहचर ई-पत्रिका,दिल्ली    (31जुलाई 2020) "फनीश्वरनाथ रेणु का साहित्य और आज का सामाज" सहचर ई-पत्रिका,दिल्ली  (25 जुलाई 2020) "Subconscious Mind and Behaviour" SHIVAJI COLLEGE University of Delhi National Service Scheme   (25 July 2020) 'नव विमर्श:इक्कीसवीं सदी' 'एल.जी.बी.टी.आई.और समाज की भूमिका' SHIVAJI COLLEGE University of Delhi National Service Scheme (18 July 2020) ' नव विमर्श:इक्कीसवी सदी' 'भारतीय संस्कृति और मूल्य' SHIVAJI COLLEGE University of Delhi National Service Scheme (17 July 2020) 'KALANJALI:Revering Art and Indian Culture' 'संगीत:जीवन शक्ति का अजस्त्र स्रोत' SHIVAJI C

आलू

                                आलू आलू सार्वभौम है अति प्राचीन काल से इसको देखा गया है और जमीं से जुड़ा निराला प्यारा वैज।सब्जी तरकारी में छोटों बड़ों की पहली पसंद ,जाने कितनी सब्जियां आई और लुप्त हुई पर आलू जैसा कोई नहीं निर्धन हो या अमीर सेठ हो या फकीर दोनों चटकारे   ले लेकर इसको खाते हैं पकाते हैं।वास्तव में यह सब सब्जियों संग मेल मिलाप रखता है तभी आज तक जिन्दा है सस्ता और अनेक नस्लों में बिना व्यवधान के मिल जाता है कहीं पहाड़ी तो कहीं नया या पुराना और जाने क्या क्या पर मैं बिना संकोच के इसे अपनी पहली पसंद मानता हूं ये छोटे बड़े ठिगने मोटे आकारों में मिल जाता है मेल सब्जी हो या फिमेल दोनों संग मस्त रहता है प्रभु भक्ति व्रत त्योहारों में इसका कोई सानी नहीं कटने या पकने के बाद भी मुस्कुराहट बरकरार रहती है अब तो चिप्स समोसा पकोडा आदि का भी इसके बिना आस्तित्वहीन ही है।सारी सब्जिया दाल चने राजमा पनीर आदि जब चाहे दम तोड़ने लगते है पर आलू हमेशा मस्त रहता है। कटहल सरीखा तो हमेशा साथ आने की चाह रखता है टमाटर आलू का सबसे प्यारा सखा है जो उसके दिल में बसा है।                               @

प्रेम

  पिछले एक सवा महीने से उस परिवार को सड़क के किनारे बसे समाज में देख रहा था वो परिवार हमेशा किसी न किसी काम में संलग्न रहता था।मटियाले टैंट के नीचे जिसे लगमग आरपार देखा जा सकता था कहीं खुले में तो कहीं सींखचों से छोटे से घर की ड्योडी पर एक प्रकोष्ठ मिट्टी की कुछ घूमती रेखाएं और टैंट के दक्षिणी छोर पर एक चूल्हा रस्सी की डोर पर टंगे नये पुराने कपड़े और एक कृत्रिम उपवन के समीप कुंभ ।ये दृश्य मुझे नित् अपनी ओर आकृषित करता था क्योंकि इस घर में पूरा गृहस्थ समाया लगता था सब काम में मस्त पसीने से सराबोर पर आंखों में चमक लिए दिखते थे।बच्चों को बूढ़े दादा के चेहरे को छूना और उस बुजुर्ग महिला की अंगुली थामे बच्चों को कहीं निकट घूमते लोटना रोज़मर्रा जीवन हो चला था।पर आज उस परिवार को यहां तक कि उस टैंट को वहां न पाकर हृदय स्खलित हो गया सड़क पर चहल पहल होने के वाबजूद सब ओर शून्य है बस है तो उस परिवार की यादे बुझा चूल्हा और कुंभ के अवशेष आदि।पास से गुजरते आज सूबह उसी परिवार की स्मृति दिख रही है मालूम चला वो बिल्डिंग के बाहर की दीवारों की मरम्मत हेतु यहां बसे थे परसो रोज़ काम पूर्ण होने पर सब लौट गये

ठूंठ

  रात भर सोचता रहा दुनिया कितनी खुबसूरत है पर इसे देखने के लिए दृष्टि चाहिए चूंकि पतझर में एक सूखे दरख्त से  गिरते पत्तों को देखना किसे सुखद लगता है पर नये पत्ते का आना तभी संभव होता है जब पुराना टूटे वास्तव में टूटना फिर पुनः आ जाना यही चलता  रहता है ।कितने ही सालों से हर बार इस पेड़ को ठूंठ और पेड़ बनते देखा है। अब तो सब आदि हो गये है यही इसकी नियति है कभी सुंदर लगता है मनोरम हरी डालियों से हराभरा पर फिर कुछ समय पर निर्झर आस्तित्वहीन ठूंठ सा। इसे बुरा कहकर मिलता भी क्या है दो पल की खुशी वो भी दिखावटी पर ये तो ऐसा ही है सदियों से आज कुरूप बेशक्ल है पर कल यही दिल को भाने लगता है। कितनी बेचारी है दुनिया जो सामने है उसे ही सत्य मान आश्वस्त हो जाते  हैं पर सब यथार्थ से कोसों दूर है।दिन भर पैरों से ठोकरे मारने पर भी वो सूखा  ठूंठ पुनः मन में बस जाता है यह भी शीतल हवा के झोंको में क्रीड़ा करेगा इसे भी बरसात में भीगना अच्छा लगता है हम सब की भांति।पर इसे किसी से कोई सरोकार नहीं ना ही कोई उम्मीद नहीं होती क्योंकि उम्मीद टूटती है आंसू छलकते है पर इस ठूंठ के तो  आंसू देखने वाला कोई नहीं।आज भीड़

सुई (आरंभ) में प्रकाशित

  दिन बदल गये जीवन नहीं बदला आज भी वही सुई है जो कल थी पर आज उसकी महत्ता बदल गई आज घर के सिले कपड़े कौन पहनता है आधुनिक सभ्य लोग अब एक दो रुपये की सुई को कहां पूछते हैं नये परिधानों में गुम गयी कहीं सुई पर सुई के बिना आज भी हम अधूरे हैं सब जानते हैं पर समझते नहीं सुई की महत्ता वो आज भी कुछ गरीबों की दर्जियों की कारखानों के कारीगरों की रोजी रोटी है पर सुई की नोक का ही सबको पता है कोई नहीं जानता कि सुई कपड़े को बनाती है पहनने लायक वरना कपड़ा मात्र कपड़ा है बिछोना है सुई आज भी सुई हैं दिन बदले सुई आज भी वही है पूर्ववत मनोज शर्मा

भय (वीणा पत्रिका में प्रकाशित)

  वो दौड़ते कदमों से बढ़ता चला जा रहा था गर्मी की कलुषित उमस से वो पूरा भीगा था पेशानी पर पसीना थम तक नही रहा था वो बार बार दाये हांथ की अंगुलियों से पसीने को नीचे झटकता पर दो पल में ही फिर पेशानी पसीने से भर जाती जैसे तैसे दौड़ता वो अड़तीस नं0 बस में चढ़ गया उसने एक बार फिर पसीने को पीछे की ओर झटका पर ये क्या इस बार हाथों से छलकता पसीना सीधे साथ बैठी स्त्री पर जा पड़ा बदबूदार पसीने की बूंदे पड़ते ही स्त्री तमतमा गयी और उसमें क्रोध चेतना जाग्रत हुई उसकी आंखे लाल थी होठ फड़फड़ा रहे थे पर फिर भी वो शांत रही किंतु मानुष बुरी तरह सहम गया और खोफ से नज़र झुकाकर वहीं सिमट गया उसने शांत भाव से स्त्री से क्षमा याचना की पर स्त्री ने आंखे तरेरते हुए मुंह झटक दिया मानुष अपराधी की भांति बैठा रहा उसने बस से उतरते हुए पुनः बोला मैडम साॅरी मुझे अपनी ग़लती पर खेद है और वो बस से उतर गया दिन भर वो दुःखी रहा अगले दिन उसने स्त्री से पुनः क्षमा याचना की और कहा कल की ग़लती के लिए मैं क्षमा चाहता हूं स्त्री बिना ध्यान दिये आगे बढ़ गयी वो चुपचाप स्त्री को देखता रह गया और उसे लगा कि वो अपराधी है शाम को दफ्तर

दफ़्तर

  मेरा दफ्तर पांचवे माले पर है पर दफ्तर चौथे पर हो या सातवें पर थकावट एक सी हो जाती है यदि बिल्डिंग की लिफ्ट खराब हो तो।कई मर्तवा ये बाते बहुत खास हो जाती है जैसे किसी खास चीज को खरीदने फलां दुकान पर जाये और वो बंद हो हालांकि दुकानदार कभी इस बात पर तव्वज़ो नहीं देता कि खरीदार सरकारी नौकर है या बिजनेसमैन अथवा प्राइवेट मुलाजिम। लिफ्ट का न चलना या उस दुकान का बंद होना बहुत मायने रखती है पर कभी इसपर ध्यान नहीं जाता पर कभी ये सभी साथ न दे तो रत्ती भर के लोग कोसो गालियां देने से नहीं चूकते।मैट्रो आज जीवनरेखा है पर दो मिनट के बिलंब होते ही सैकड़ों हजारों गालियों की चौतरफा बौछारे होने लगती है। ये आवश्यक तो नहीं कि हर कोई दूसरे को पसंद ही हो पर ज़रुरत पड़ने पर सबसे प्रिय लगता है वो क्योंकि यहां मतलब से बात करते हैं सब।घर से मोड़ तक की लिफ्ट,मोड़ से मैट्रो स्टेशन तक और फिर न जाने कहां कहां सब एक दूसरे से जुड़ चुके हैं।सब इसी हेर फेर में रहते हैं ये क्रम योंही चलता रहे यही  आज का जीवन है मैट्रो पर सीट मिलने से पहले जो सादगी और आदमियत चेहरे पर झलकती है वहीं सीट पर बैठते ही अखड़ता में बदल जाती है

क्षण भर

  आओ क्षण भर बैठो देखो तो सही वक्त नहीं बदला हां पर तुम बदल गये हो अब न कोई प्रणय और न ही कोई विस्तार प्रेम का दुःख का स्नेह कहीं भंग हो चला साज कहीं छूट गया पुरानी सोच नये से इतर है बदले भाव बदले अर्थ भाव आत्मसात् नहीं आओ तुम एक बार फिर क्षण भर बैठकर यथार्थ को देखो मुझे क्षण भर देखो मेरा स्थिर समर्पण व्यर्थ नहीं धीर है मेरा तुम आज भी तुम हो मैं मैं से अलग कुछ आओ लौटकर क्षण भर एक बार फिर मनोज शर्मा

प्यार

  मेरी आंखों में उमड़ा गहरा प्यार उमड़ते मेघ-सी मेरी अभिलाषा कि तुम्हे देख लूं बस एक पल और फिर बरस लूं देर तक जैसे मेघ बरसते हैं -:मनोज शर्मा:-

हम तीन (साहित्यकुंज)में प्रकाशित

  हम तीन शहर में रहकर बहुत कुछ बदल गया आज सोते सोते लगा मैं सोया नहीं वरन् अपने गावं में हू उन दरख्तों तले जो उगाये थे मैंने और हरिमोहन ने बचपन में जब कभी हम छोटे थे लघु पोधे से बढ़ते गये रोज़ जमीं पक गयी पेड़ भी फल फूल गया अब तो वो भी बुढ़ा गये मुझ जैसे हो गये दोनों बाल पके आंख गयी मेरी और पीले पत्ते सूख गये दरख्त के हरिमोहन तो खांस खांस के चल बसा परसो रोज़ मिल भी न सका उससे अंत तक सोचता रहा कि वो मिलेगा पर पेड़ अभी भी है शायद मेरी तरह है बूढ़ा सोचता हूं अब कल हो ही आऊं उस दरख्त को तो देख आऊं फिर हम दोनों में कभी कोई एक भी न बचे शायद वो भी सूख गया होगा मुझ जैसा लगता होगा मैंने कभी कहा था बचपन में हरिमोहन से हम तोनों संग होंगे एक दिन पर अब दो ही बचे हैं शायद अब दरख्त ही बचेगा मैं भी नहीं कल तक जाने हो न हो मनोज शर्मा  

सफेदी वाले

   (सफेदी वाले) हाथ में रंग लिए आंखे तेज दबी जबान कान हर ओर किये बढ़ी हुयी दाढ़ी और फटे कमीज में मुरझायी देह दिखती है उनकी रोज़ बढ़ जाते हैं मैले गमछे बने गलमुड़े छोड़ रहे गंध कतार में बैठे है पसीने की         तेज धूप में कोलतार से जल रहे सपने बैठे हैं इंतजार में गर्म सड़क पर गाहक की आस में शाम तक वो सफेदी वाले बगल में दबी रंगीन रोटियां महकती दूर तक बिन पानी के दौड़ते हैं रोज़ आदत से वो सफेदी वाले। मनोज शर्मा

तुम

  नभ में तुम पथ में तुम आंखे तुम्हें पुकारे ठहरों बस एक पल सालते हृदय को तृप्त कर जाओ मनोज शर्मा

पहचान

  क्या मैं आपको जानता हूं या क्या आप मुझे जानते हैं? आप शायद ये सोच रहे होंगे कि ऐसा मैं आपसे क्यों पूछ रहा हूं।वो इसलिए कि इससे फर्क पड़ता है शायद आपको भी और मुझे भी।आप मेरा परिचय मेरे नाम से ही जानते होंगे और फिर मेरी पहचान मेरे नाम तक ही सीमित रह जाती है आपसे में उतना ही वाकिफ़ हूं जितना कोई और हो सकता है। सारांश में कहा जाए तो हम दोनों एक दूसरे के बारे में उतना ही जानते हैं जितना हमें जानना चाहिए..। मनोज शर्मा