सांझ
रोज़ सांझ आती है
नये बदन मेंकभी मुस्कुराकर
कभी ग़मग़ीन
एक लम्बी जम्हाई लिये
लौट जाती है
अनायास
कोई नहीं आता
असभ्य सांझ तुम्हे
ओट चाहिए
सुराही सी सांझ
कभी प्यालों में
छलकती है
कभी आंखों में
तैर जाती है
सांझ बस सांझ
मनोज शर्मा
...धीरे -धीरे गरिमा के साथ बूढ़ा होना बहुत बड़ा 'ग्रेस' है,हर आदमी के बस का नहीं।वह अपने-आप नहीं आता ,बूढ़ा होना एक कला है,डिसे काफी मेहनत से सीखना पड़ता है।हर आदमी को एक मर्तबा अपनी पसंद को चुनने की आज़ादी मिलनी चाहिए चूंकि बाद में तो सब उसे दोहराया जाता है..। एक चलती-फिरती दुनिया-जिसके सदस्य एक-दूसरे को नहीं जानते-फिर भी हमेशा एक-दूसरे से मिलते हैं,अंधेरे हाॅल में ताली बजाते हैं-पर एक-दूसरे को जानते नहीं,छूते नहीं-तमाशा खत्म होते ही अपने-अपने कोनों में खो जाते हैं..।
रोज़ सांझ आती है
नये बदन में
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