बावस्ता

 इब्तिदा कब खत्म हुई

ख़ैर
गुमां तो रहा
गर्दिश में लौटकर
आसमां बदल गया
कभी बतियाते थे
गली कूचों
नुक्कड़ों पर
जब मंज़िलें करीब लगती थी
आज़ खुद को लुटा कर
भी
हाथ कुछ न लगा
हम किसी के न हुए
कोई हमारा न हुआ
सहर थम गयी
आसमां बदल गया
ज़िन्दगी मुसलसल
चलती रही
कहीं बावस्ता न रहा

मनोज शर्मा

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