हम तीन (साहित्यकुंज)में प्रकाशित

 



हम तीन

शहर में रहकर
बहुत कुछ बदल गया
आज सोते सोते
लगा मैं सोया नहीं
वरन् अपने गावं
में हू
उन दरख्तों तले
जो उगाये थे
मैंने और हरिमोहन ने
बचपन में
जब कभी हम
छोटे थे
लघु पोधे से
बढ़ते गये
रोज़
जमीं पक गयी
पेड़ भी फल फूल गया
अब तो वो भी
बुढ़ा गये
मुझ जैसे हो गये दोनों
बाल पके आंख गयी मेरी
और पीले पत्ते सूख गये दरख्त के
हरिमोहन तो खांस खांस के
चल बसा
परसो रोज़
मिल भी न सका
उससे अंत तक
सोचता रहा
कि वो मिलेगा
पर पेड़ अभी भी है
शायद मेरी तरह है बूढ़ा
सोचता हूं अब
कल हो ही आऊं
उस दरख्त को तो देख आऊं
फिर हम दोनों में कभी
कोई एक भी न बचे
शायद वो भी सूख गया होगा
मुझ जैसा लगता होगा
मैंने कभी कहा था बचपन में
हरिमोहन से
हम तोनों संग होंगे एक दिन
पर अब दो ही बचे हैं
शायद अब
दरख्त ही बचेगा
मैं भी नहीं
कल तक
जाने हो न हो

मनोज शर्मा

 












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