मां

 मैंने कई मर्तवा देखा था तुम्हें

आर्द्र नयनों से
भीगते
सिसकते
कसकते
चहकते महकते
स्वयं को मिटते
सिमटते
बरबस चहकते हुए
मर्म समेटे
मुस्कुराहट
बिखेरते
गहन अंधकार को
तराशते
पुनः
नवतरण
लौटते
अभिन्न असहज
अक्षुण्ण
सहृदय से
नव कर्म में
आशीष लिए
नित्य
तुम संग हो


मनोज शर्मा

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पथभ्रष्ट

कोहरा