मासूम

 आंखे मुस्कुरा के

ठहर जाती है
मासूम बच्चे के से
मन की
अटखेलियां सी
रोज़ भंवर से
उठकर
सिहर उठती है
इक शफ़क थी
कभी
यहीं कहीं
इक रोज़
बचपन भी बीत चला यौं
बिखरते फूल सा
उन दरीचो के
नीचे
जिनकी गंध भी
थम गयी
मटमैली मिट्टी
पुनः रेत बन
हाथ से बह चली
गुज़रा वक्त
आज
असहज लगता है
पर तुम भी
संग नहीं
अर्धसत्य
करपाश किये हुए हो तुम

मनोज शर्मा

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पथभ्रष्ट

कोहरा