प्रेम

 पिछले एक सवा महीने से उस परिवार को सड़क के किनारे बसे समाज में देख रहा था वो परिवार हमेशा किसी न किसी काम में संलग्न रहता था।मटियाले टैंट के नीचे जिसे लगमग आरपार देखा जा सकता था कहीं खुले में तो कहीं सींखचों से छोटे से घर की ड्योडी पर एक प्रकोष्ठ मिट्टी की कुछ घूमती रेखाएं

और टैंट के दक्षिणी छोर पर एक चूल्हा रस्सी की डोर पर टंगे नये पुराने कपड़े और एक कृत्रिम उपवन के समीप कुंभ ।ये दृश्य मुझे नित् अपनी ओर आकृषित करता था क्योंकि इस घर में पूरा गृहस्थ समाया लगता था सब काम में मस्त पसीने से सराबोर पर आंखों में चमक लिए दिखते थे।बच्चों को बूढ़े दादा के चेहरे को छूना और उस बुजुर्ग महिला की अंगुली थामे बच्चों को कहीं निकट घूमते लोटना रोज़मर्रा जीवन हो चला था।पर आज उस परिवार को यहां तक कि उस टैंट को वहां न पाकर हृदय स्खलित हो गया सड़क पर चहल पहल होने के वाबजूद सब ओर शून्य है बस है तो उस परिवार की यादे बुझा चूल्हा और कुंभ के अवशेष आदि।पास से गुजरते आज सूबह उसी परिवार की स्मृति दिख रही है मालूम चला वो बिल्डिंग के बाहर की दीवारों की मरम्मत हेतु यहां बसे थे परसो रोज़ काम पूर्ण होने पर सब लौट गये।धन,दौलत नौकरी चाकरी के अनियमित प्रबंध से भी वो परिवार कितना खुश था।मेरा ही नहीं जाने कितने लोगों  का चित मोह लिया था इस परिवार ने मुस्कुराते हुए मस्ती में कैसे जी सकते हैं सिखा दिया शायद यही जीवन है अब वो सब जाने कहां होंगे कृत्रिम उपवन में खिलता कमल अब भी मुस्कुरा रहा है बिल्कुल पहले सा।

मनोज शर्मा

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