भीत

 रोज भीत को देखता हूं

जिज्ञासावश
विवश हो जाता हूं
देखकर
उतरती भीत की परते
सालती दीवार
कमतर कर देती  हैं
मौन हूं
भयभीत हो
फिर एकटक बंध जाता हूं
उसी भीत में
सदियों से खड़ी भीत
कभी रोकती
कभी ठहरती
जर्जर हो चली
मैले कुचैले
ठिठकते बिचार
सलवटे झांककर
रोज उभर जाती है
सिहर उठती है
स्वयं में
पुराने स्वप्नों से
रोज व्यक्त नहीं होते
कालांतर से
भयभीत
पुर्ववत तुम
वहीं पहले से
स्तब्ध

मनोज शर्मा

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