काला कऊआ



उस रोज़
हम दो
मैं और वो काला कऊआ
उस टीले पर बैठे थे
निरस्त से
कहीं खोये खोये से
अजनबी बन
उसने मुझे देखा
मैंने उसे
वो गुमसुम था
बहुत देर से
अकेला
मेरी तरह
सहसा इक हलचल हुई
वो ठिठका
और लपक कर उड़ गया
दूसरे ठोर की ओर
मैं ताकता रह गया
उसी टीले की ओर
जहां हम दो थे
उस रोज़

मनोज शर्मा

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