पुत्रवधु

  मृगनयनी 

मृदुभाषिणी
चित में मर्म जगाती
मेरी पुत्रवधु
जर्जर थे हम
तेरे आने से पूर्व
जब
आसंमा स्याह
हो चला था
भीगती आंखें एवं
सिसकियां हर
ओर निकलती थी
तुम कल्पतरु से
रोज़
भाग्य जगाते हो
मनमोहक मुस्कान
लिए
हृदय में बस जाते हो
ठौर बदल
संगिनी बनी
पुत्र से बढ़कर
मान हो
सम्मान हो
पुत्री ही नही
वरन्
मेरे घर की शान हो

मनोज शर्मा

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