दफ़्तर

 मेरा दफ्तर पांचवे माले पर है पर दफ्तर चौथे पर हो या सातवें पर थकावट एक सी हो जाती है यदि बिल्डिंग की लिफ्ट खराब हो तो।कई मर्तवा ये बाते बहुत खास हो जाती है जैसे किसी खास चीज को खरीदने फलां दुकान पर जाये और वो बंद हो हालांकि दुकानदार कभी इस बात पर तव्वज़ो नहीं देता कि खरीदार सरकारी नौकर है या बिजनेसमैन अथवा प्राइवेट मुलाजिम। लिफ्ट का न चलना या उस दुकान का बंद होना बहुत मायने रखती है पर कभी इसपर ध्यान नहीं जाता पर कभी ये सभी साथ न दे तो रत्ती भर के लोग कोसो गालियां देने से नहीं चूकते।मैट्रो आज जीवनरेखा है पर दो मिनट के बिलंब होते ही सैकड़ों हजारों गालियों की चौतरफा बौछारे होने लगती है।

ये आवश्यक तो नहीं कि हर कोई दूसरे को पसंद ही हो पर ज़रुरत पड़ने पर सबसे प्रिय लगता है वो क्योंकि यहां मतलब से बात करते हैं सब।घर से मोड़
तक की लिफ्ट,मोड़ से मैट्रो स्टेशन तक और फिर न जाने कहां कहां सब एक दूसरे से जुड़ चुके हैं।सब इसी हेर फेर में रहते हैं ये क्रम योंही चलता रहे यही  आज का जीवन है मैट्रो पर सीट मिलने से पहले जो सादगी और आदमियत चेहरे पर झलकती है वहीं सीट पर बैठते ही अखड़ता में बदल जाती है जैसे ये सारे प्रलोभन सीट पाने मात्र के लिए थे खैर धन्यवाद पाने की लालसा की तो कहीं उम्मीद ही नहीं होती पर कभी लिफ्टमैन को मुस्कुराहट भरा जवाब ही दे दिया जाए या सीट देने वाले किसी स्वजन को।इससे किसका क्या जाता है पर आपका काम निकल जाता है और फिर आपका शिष्टाचार भी तो दिखता है  पर ऐसे शिष्टाचार दिखाने की किसी की ललक नहीं।बहरहाल पांच माले चढ़कर मुझमें ये सब कहने का साहस आ गया है अथवा ये सब बाते यहां कहने का कोई औचित्य भी नहीं ।सब अपना जीवन जीते हैं और उन्हें लगता है कि अच्छे से जी रहे हैं।हर आदमी की सोच भिन्न है पर वो शायद ठीक हैं मेरी नज़र में नहीं स्वयं की नज़र में तो है जीवन अपना सोच अपनी कर्म अपना यहां गुणों की महत्ता से अधिक काम निकालने की कला एवम् कारीगरी सबको भाती है।दुःख यकीनन हृदय में हो या न हो वरन् चेहरे पर अवश्य दिखना चाहिए चाहे अंतर्मन में व्यथा लेशमात्र भी न हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि किसी का कृपापात्र चेहरा दिखकर ही बन सकता है दुःख दिखाकर नही

मनोज शर्मा

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