ठूंठ

 रात भर सोचता रहा दुनिया कितनी खुबसूरत है पर इसे देखने के लिए दृष्टि चाहिए चूंकि पतझर में एक सूखे दरख्त से  गिरते पत्तों को देखना किसे सुखद लगता है पर नये पत्ते का आना तभी संभव होता है जब पुराना टूटे वास्तव में टूटना फिर पुनः आ जाना यही चलता  रहता है ।कितने ही सालों से हर बार इस पेड़ को ठूंठ और पेड़ बनते देखा है।अब तो सब आदि हो गये है यही इसकी नियति है कभी सुंदर लगता है मनोरम हरी डालियों से हराभरा पर फिर कुछ समय पर निर्झर आस्तित्वहीन ठूंठ सा।इसे बुरा कहकर मिलता भी क्या है दो पल की खुशी वो भी दिखावटी पर ये तो ऐसा ही है सदियों से आज कुरूप बेशक्ल है पर कल यही दिल को भाने लगता है।कितनी बेचारी है दुनिया जो सामने है उसे ही सत्य मान आश्वस्त हो जाते  हैं पर सब यथार्थ से कोसों दूर है।दिन भर पैरों से ठोकरे मारने पर भी वो सूखा  ठूंठ पुनः मन में बस जाता है यह भी शीतल हवा के झोंको में क्रीड़ा करेगा इसे भी बरसात में भीगना अच्छा लगता है हम सब की भांति।पर इसे किसी से कोई सरोकार नहीं ना ही कोई उम्मीद नहीं होती क्योंकि उम्मीद टूटती है आंसू छलकते है पर इस ठूंठ के तो  आंसू देखने वाला कोई नहीं।आज भीड़ में रहकर ये अपनी महत्ता खो चुका है पर कल एक बार फिर सब इसे देखकर चहक उठेंगे।यकीनन् यही सत्य है।


मनोज शर्मा

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