मोहन राकेश

 मोहन राकेश कलम के सशक्त हस्ताक्षर थे 08 जनवरी उनका जन्म दिवस है।'आधे अधूरे','आषाढ़ का एक दिन',बेहतरीन नाटक हैं।मिस पाल,एक और जिंदगी और ज़ख्म जैसी कहानियों में वह स्वयं नज़र आते हैं।'अंधेरे बंद कमरे'उनकी लेखनी का नायाब उदाहरण हैं।मेरा सबसे प्रिय लेखक मोहन राकेश हैं जो कभी कभार मेरे अंदर आ बैठता है ।रेखाओं पर कुछ आकृति खींच लौट जाता है।कोई तो है जो अंदर है छटपटाता है शायद उन जैसा कुछ है जो कुछ कह जाता है कभी कभी।


छह सात सालों में चेहरा बदल जाता हैं और चेहरा ही नहीं बल्कि सोच भी।जहां चेहरे पर सलवटे उभरने लगती है वहीं अब सोच भी परिपक्व होती चली जाती है।कई चेहरे एक समान या मिलते जुलते से नज़र आने लगते हैं।उसकी कमजोर होती आखों पर मोटा काला चश्मा आ गया था और केश भी सफेद होने के साथ साथ कम हो चुके थे।दरवाजे पर आहट होने पर कोई आकृति लम्बे गलियारे से होते हुए करीब आती जा रही थी।समय बीतने पर भी उसकी चाल में अभी भी वही थी एक चुस्ती सी जो कुछ समय पहले तक थी एक पल में वो मेरे सामने था।उसने मुझे पहचान लिया था अब हम घर के अंदर थे।अंदर पहुंचकर उसने उस जलती सिगरेट को बिस्तर के पास पड़े तीन टांगों वाले स्टूल पर रखी ऐश्ट्रे पर से उठाकर मुहं तक ले गया और उसने मुझे बैठने को कहा।वो धुंधला सा जलता कमरा और धुंधला होता जा रहा था पास ही रखी ऐश्ट्रे जली बुझी सिगरटों से भर चुकी थी।लगता था सुरेंद्र अब सिगरेट का आदि हो चुका था एक समय था जब वो सिगरेट पीने वालों से भी कतराता था।पर समय ने और नियति ने सुरेंद्र के साथ बहुत बुरा किया था।छह सात साल पहले जब हम काॅलेज पढ़कर अलग अलग जगह सैटल होने लगे थे।सविता से उसकी अच्छी पटती थी और उनके विचारों में भी एकसमानता सी थी सुरेंद्र के साथ साथ मुझे भी बहुत अच्छा लगा था जब उन दोनों ने शादी कर ली थी।मैं दूर होते हुए भी उनकी शादी में शरीक हो गया था हालांकि लेट पहुंचने पर सुरेंद्र के साथ साथ सविता ने भी कड़ी फटकार लगायी थी पर मैंने उस समय की फटकार को जायज़ समझ कर खुद को शांत रखा था।बाहर कोहरे को चीरती कुछ आवाजे बीच बीच में अपनी ओर खींच रही थी पर वर्फ की सी चादरों में घिरा वो सपाट मैदान सा नज़र आता था।..............



मनोज शर्मा

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