सुई (आरंभ) में प्रकाशित

 दिन बदल गये

जीवन नहीं बदला
आज भी वही सुई है
जो कल थी
पर आज उसकी महत्ता बदल गई
आज घर के सिले
कपड़े कौन पहनता है
आधुनिक सभ्य लोग
अब एक दो रुपये की
सुई को कहां पूछते हैं
नये परिधानों में
गुम गयी कहीं सुई
पर सुई के बिना
आज भी हम अधूरे हैं
सब जानते हैं
पर समझते नहीं
सुई की महत्ता
वो आज भी कुछ
गरीबों की दर्जियों की
कारखानों के कारीगरों की
रोजी रोटी है
पर सुई की नोक का ही
सबको पता है
कोई नहीं जानता
कि सुई कपड़े को
बनाती है
पहनने लायक
वरना कपड़ा मात्र कपड़ा है
बिछोना है
सुई आज भी सुई हैं
दिन बदले सुई आज भी वही है
पूर्ववत


मनोज शर्मा

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