मख़तूल

 किसी को मख़्तूल समझना बहुत आसान है क्योंकि कोई किसी के संदर्भ में जितना जानता है वो अपर्याप्त होता है दंभ में जीना स्वयं को अव्यवस्थित ही करता है।चरित्र समय बीतते बनता जाता है एक पल आंखों में बस जाता है तो दूसरे पल आंखों से उतर जाता है पर हर इंसान अपना किरदार निभाता रहता है अब चाहे आनंद से जीयो या अवसाद में।किसी की सूरत देख कभी मौसम टपकता है तो कभी भवें तन जाती है पर यही आंखे ऐसे चरित्र से कभी खिल जाती थी समय बदलता है मौसमों की तरह दुःख सुख किसी का नहीं होता अपनी अपनी श्रद्धा है अपनी अपनी सोच प्रेम कभी अपने चरम पर होता है तो कभी सिरे से नकार देता है।मख्तूल एक सोच है जो मात्र सोच से ऐसा बन जाता है और उसे दूसरों से इतर कर देता है पर इतना सत्य है कि मुक्कमल कोई नहीं जीवन में ग़लती सबसे होना लाज़िमी होता है पर अकारण मख्तूल कह देना कोई औचित्य नहीं।मात्र सोच के कारण कुछ भी समझ लेना और अलग रास्ता अख़्तियार कर लेना मेरी समझ से परे है बहरहाल दिन बीत गया एक पीली शाम आंखों के सामने है गहरी सोच रात के अंधेरों को फिर ओढ़ लेगी।सब इसी तरह जीते हैं बस किरदारों में फेरबदल होता जाता है आज मैं मख्तूल कल कोई दूसरा बस यही जीवन है जिसे हम जीते हैं शायद।


मनोज शर्मा

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