अंतर्मन

 तुम अंतर्मन की

जिज्ञासा से
करीब ही नहीं
ओत प्रोत हो जाते हो
अंबर पर तारों
के मध्य
मृगतृष्णा
एक परिहास सा होता है
नित्य तुम आते हो
लौट जाते हो

मनोज शर्मा

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पथभ्रष्ट

कोहरा