सफ़र

 बंद दरवाज़ों से होता है

रोज सामना
अब
यौं बार बार
पलकें झपकना
खुद को निहारना
आइने में
कभी लगता था
कि वक्त थम जाये
उस देहरी तले
पर पीली घूप
सामने है
पहर भी
गुज़र गये
एक नयी इब्तिदा
सामने अब
आओ हमतुम
फिर से
बढ़ चले

मनोज शर्मा

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